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खुद बुने जाल में फंसे अमर सिंह

रितेश मिश्रा

अमर सिंह ने सपा से भले ही इस्तीफा न दिया हो लेकिन अब ये तय हो गया है, कि उनकी और मुलायम सिंह की राहें जुदा हो गई हैं। पार्टी से इस्तीफा न देने की वजह मात्र राज्यसभा की सीट है। अमर चाहते हैं कि मुलायम उन्हें पार्टी से निकाले ताकि सीट बरकरार रहे और मुलायम अमर सिंह को पार्टी से निकालने की बजाए अपने सिपहसालारों से राज्यसभा सीट छोड़ने का दवाब बना रहे हैं। दरअसल वर्तमान स्थितियों के लिए अमर सिंह खुद जिम्मेदार हैं। उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं ने ही उन्हें इस स्थिति में खड़ा कर दिया है कि अपनी बात करने के लिए उन्हें गैरराजनैतिक मंच बनाने की जरूरत पढ़ गई है।

 अमर सिंह ने बढ़ी होशियारी से सपा के फाउंडर्स में शुमार बैनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर और आजम खां जैसे कद्दावर नेताओं को मुलायम से अलग कर दिया या कहिए मुलायम से इन्हें पार्टी से बाहर करा के अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी पर प्रभुत्व कायम कर लिया। उनकी राह में अब बस एक ही कांटा बचा था जो उनकी उम्मीदों को परवान चढ़ने से रोक रहा था। यह शख्स कोई और नहीं मुलायम के अपने भाई रामगोपाल यादव थे। लेकिन यहां अमर यह भूल गए कि बेनी बाबू, आजम खां और बब्बर को मुलायम से जुदा करना अलग बात थी। यह सब मुलायम के सहयोगी थे लेकिन राम गोपाल मुलायम के भाई हैं, फिर भी अमर रामगोपाल से भिड़ गए। अमर को यह उम्मीद रही होगी कि मुलायम सिंह उनके अहसानों तले इतने दब चुके हैं कि जब प्रोफेसर और अमर में से किसी एक को चुनने की बात आएगी तो वह अमर को चुनेंगे।

 इसकी वजह पूर्व में तीन बार उनके द्वारा इस्तीफे का स्वांग रचना और हर बार मुलायम का उन्हें मना लेना था। इस बार भी मुलायम ने अमर को मनाने की चेस्टा की। एक बार तो रामगोपाल और अमर में टेलिफोन के जरिए सुलह भी करा दी, लेकिन अमर के बड़बोलेपन ने बात बिगाड़ दी। सूत्र बताते हैं कि इस सुलहनामें के बाद अमर ने मीडिया में ये खबर दे दी कि रामगोपाल ने मुझसे मांफी मांगी। रामगोपाल जैसे धीर गंभीर व्यक्ति और  मुलायम परिवार को अमर की यह हरकत इतनी नागवार गुजरी कि नेताजी से उन्होंने साफ कह दिया कि अब पार्टी में या तो अमर रहेंगे या फिर हम। बस इसी के बाद मुलायम ने अमर का इस्तीफा मंजूर कर लिया। इस दौरान अमर ने जिस ढंग से मुलायम के राज अपने सीने में दफन होंने का सिगूफा छोड़ा उससे उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ गई। राजनीत में धैर्यवान और राजदार होना बेहद अहम माना जाता है। अमर सिंह इन दोनों ही मामलों में खरे नहीं उतरे यही नहीं जिस ढंग से उन्होंने अपने ब्लॉग पर स्वर्गीय छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर जी के इलाज की व्यवस्था करने और मोहन सिंह आदि को चुनाव के दौरान पैसे देने की बात कही उससे बाकी राजनैतिक दलों के कान खड़े हो गए कि यह व्यक्ति राजदार नहीं है। यहीं वजह है कि आज अमर सिंह उस मुहाने पर खड़े हैं कि कोई भी दल बांहें फैला कर उन्हें अपने साथ लेने को तैयार नहीं है।

इस्तीफा देने के तुरंत बाद खबर उड़ी कि वह शरद पवार की राकांपा में जा रहे हैं। लेकिन पवार ने इससे इंकार कर दिया। इसके पीछे उनकी और मुलायम के घनिष्ठ संबंध बताए जाते हैं। फिर कहा गया कि अमर सिंह कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। हाल ही में उन्होंने मायावती और सोनिया गांधी की काफी तारीफ की है। लेकिन कहीं से कोई बुलावे जैसी बात नहीं है। अमर सिंह अब सपा को तोड़ने के प्रयास में लगे हैं। लेकिन जया प्रदा, जया बच्चन जैसे चंद लोगों को छोड़कर लगता नहीं है कि कोई सांसद विधायक अमर सिंह के पीछे सपा छोड़ेगा। उसकी वजह यह है कि अमर भले ही कांग्रेस में जाएं या बसपा में जाएं अथवा किसी अन्य दल में इतना तय है कि उनकी सपा जैसी स्थिति किसी भी पार्टी में हाल फिलहाल होने की तो दूर-दूर तक संभावनाएं नहीं है। जहां तक समर्थकों का सवाल है राजनैतिक व्यक्ति उसी के पीछे चलता है जिससे कुछ मिलने की उम्मीद होती है।

जब अमर सिंह अपने ही वजूद के लिए संघर्ष कर रहें हों तब वे भला समर्थकों कों कैसे और क्या दिला पाएंगे। पूरे घटना चक्र से यह साफ है कि सपा को कार्पोरेट कल्चर से मुक्ति मिलने पर पार्टी के आम कार्यकर्ता जहां खुश हैं वहीं अमर अपने ही बुने जाल में ऐसे फंस गए हैं कि अब वह वापस मुलायम के साथ भी जाना चाहें तो शायद उनकी पहले जैसी हैसियत नहीं होगी। उपर से उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनके खिलाफ दर्ज मामलों में कार्रवाई शुरू करने के लिए चार्टेड एकांउटेंट नियुक्त करने का फैसला और कर लिया है। जाहिर है इससे उनकी परेशानियां इसलिए और बढ़ जाएंगी कि अब उनके पास सपा जसी कोई सियासी छतरी नहीं है।